ढल गया आफताब ऐ साकी
ला पिला दे शराब ऐ साकी
या सुराही लगा मेरे मुँह से
या उलट दे नकाब ऐ साकी
मैकदा छोड़ कर कहाँ जाऊं
है ज़माना ख़राब ऐ साकी
जाम भर दे गुनाहगारों के
ये भी है इक सवाब ऐ साकी
आज पीने दे और पीने दे
कल करेंगे हिसाब ऐ साकी
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जगजीत जी मेरे परमप्रिय हैं। उनकी गाई हुई ग़ज़लें यहाँ पेश की जा रही हैं।
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