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Friday, April 18, 2014

और तो कोई बस न चलेगा हिज्र के दर्द के मारों का... - aur to koi bas na chalega hijr ke dard ke maron ka

और तो कोई बस न चलेगा हिज्र के दर्द के मारों का,
सुबह का होना दूभर कर दें रस्ता रोक सितारों का,

झूठे सिक्कों में भी उठा देते हैं अक्सर सच्चा माल,
शक्लें देख के सौदा करना काम है इन बंजारों का,

अपनी ज़ुबां से कुछ न कहेंगे चुप ही रहेंगे आशिक़ लोग,
तुम से तो इतना हो सकता है पूछो हाल बेचारों का,

एक ज़रा-सी बात थी जिस का चर्चा पहुंचा गली-गली,
हम गुमनामों ने फिर भी एहसान न माना यारों का,

दर्द का कहना चीख उठो दिल का तक़ाज़ा वज़'अ निभाओ,
सब कुछ सहना चुप-चुप रहना काम है इज़्ज़तदारों का,

जिस जिप्सी का ज़िक्र है तुमसे दिल को उसी की खोज रही,
यूँ तो हमारे शहर में अक्सर मेला लगा निगारों का,

'इंशा' जी अब अजनबियों में चैन से बाक़ी उम्र कटे,
जिनकी ख़ातिर बस्ती छोड़ी नाम न लो उन प्यारों का.

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