फिर उसी रहगुज़र पर, शायद
हम कभी मिल सकें, मगर शायद
जान-पहचान से भी क्या होगा,
फिर भी ऐ दोस्त, गौर कर, शायद
मुन्तज़िर जिनके हम रहे,
उनको मिल गए और हमसफ़र, शायद
जो भी बिछडे हैं, कब मिले हैं "फ़राज़"
फिर भी तू इंतज़ार कर, शायद...
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जगजीत जी मेरे परमप्रिय हैं। उनकी गाई हुई ग़ज़लें यहाँ पेश की जा रही हैं।
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