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Wednesday, November 5, 2014

कौन कहता है मुहब्बत की ज़ुबाँ होती है... - kaun kahta hai muhabbat ki zubaan hoti hai

कौन कहता है मुहब्बत की ज़ुबाँ होती है
ये हक़ीक़त तो निगाहों से बयाँ होती है

वो न आये तो सताती है ख़लिश सी दिल को
वो जो आये तो ख़लिश और जवाँ होती है

रूह को शाद करे, दिल को जो पुरनूर करे
हर नज़ारे में ये तनवीर कहाँ होती है

ज़ब्त-ए-सैलाब-ए-मुहब्बत को कहाँ तक रोकें
दिल में जो बात हो आँखों से अयाँ होती है

ज़िन्दग़ी एक सुलगती-सी चिता है 'साहिर'
शोला बनती है न ये बुझ के धुआँ होती है

Monday, August 11, 2014

सदमा तो है मुझे भी के तुझसे जुदा हूँ मैं... - sadma to hai mujhe bhi ke tujhse juda hun main

सदमा तो है मुझे भी के तुझसे जुदा हूँ मैं,
लेकिन ये सोचता हूँ के अब तेरा क्या हूँ मैं,

बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तेरा वजूद,
बेकार महफिलों में तुझे ढूँढता हूँ मैं,

ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम,
दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूँ मैं,

ले मेरे तजुर्बों से सबक़ ऐ मेरे रक़ीब,
दो-चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं.

इसी ग़ज़ल से अन्य अशआर 

मैं ख़ुदकशी के जुर्म का करता हूं एतराफ़
अपने बदन की क़ब्र में कबसे गड़ा हूं मैं

किस-किसका नाम लाऊँ जुबां पर के तेरे साथ,
हर रोज़ एक शख़्स नया देखता हूँ मैं,

पहुँचा जो तेरे दर पे तो महसूस ये हुआ,
लम्बी-सी इक क़तार में जैसे खड़ा हूँ मैं,

जागा हुआ ज़मीर वो आईना है 'क़तील'
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं.

ख़ामोशी ख़ुद अपनी सदा हो... - Khamoshi khud apni sada ho

ख़ामोशी ख़ुद अपनी सदा हो ऐसा भी हो सकता है,
सन्नटा ही गूँज रहा हो ऐसा भी हो सकता है,

मेरा माज़ी मुझसे बिछड़ कर क्या जाने किस हाल में है,
मेरी तरह वो भी तन्हा हो ऐसा भी हो सकता है,

सहरा-सहरा कब तक मैं ढूँढूँ उल्फ़त का इक आलम,
आलम-आलम इक सहरा हो ऐसा भी हो सकता है,

अहल-ए-तूफाँ सोच रहे हैं साहिल डूबा जाता है,
ख़ुद उनका दिल डूब रहा हो ऐसा भी हो सकता है.