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Tuesday, July 27, 2010

मैं ख़याल हूँ किसी और का - main khayaal hun kisi aur ka...

मैं ख़याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है
सर-ए-आईना मेरा अक्स है पस-ए-आईना कोई और है

मैं किसी के दस्त-ए-तलब में हूँ तो किसी के हर्फ़-ए-दुआ में हूँ
मैं नसीब हूँ किसी और का मुझे माँगता कोई और है

तुझे दुश्मनों की ख़बर न थी मुझे दोस्तों का पता न था
तेरी दास्ताँ कोई और थी मेरा वाक़या कोई और है.

Monday, July 26, 2010

अबके बरस भी वो... - abke baras bhi wo...

अबके बरस भी वो नहीं आये बहार में,
गुजरेगा और एक बरस इंतज़ार में.

ये आग इश्क़ की है बुझाने से क्या बुझे?
दिल तेरे बस में है ना मेरे इख्तियार में.

है टूटे दिल में तेरी मुहब्बत, तेरा ख़याल,
कुछ रंग है बहार के उजड़ी बहार में.

आंसू नहीं है आँख में लेकिन तेरे बगैर,
तूफ़ान छुपे हुए हैं दिल-ए-बेकरार में.

Tuesday, July 13, 2010

हाथ छूटे भी तो - haath chhute bhi to...

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक़्त की शाख़ से लम्हें नहीं तोड़ा करते

जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते

शहद जीने का मिला करता है थोड़ा-थोड़ा
जाने वालों के लिये दिल नहीं तोड़ा करते

तूने आवाज़ नहीं दी कभी मुड़कर वरना
हम कई सदियाँ तुझे घूम के देखा करते

लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो
ऐसी दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते

Monday, July 5, 2010

अब मेरे पास तुम आई हो - ab mere paas tum aayi ho...

अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?

मैनें माना के तुम इक पैकर-ए-रानाई हो
चमन-ए-दहर में रूह-ए-चमन आराई हो
तलत-ए-मेहर हो फ़िरदौस की बरनाई हो
बिन्त-ए-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो

मुझसे मिलने में अब अंदेशा-ए-रुसवाई है
मैने खुद अपने किये की ये सज़ा पाई है

ख़ाक में आह! मिलाई है जवानी मैनें
शोलाज़ारों में जलाई है जवानी मैनें
शहर-ए-ख़ूबां में गंवाई है जवानी मैनें
ख़्वाबगाहों में गंवाई है जवानी मैनें

हुस्न ने जब भी इनायत की नज़र ड़ाली है
मेरे पैमान-ए-मोहब्बत ने सिपर ड़ाली है

उन दिनों मुझ पे क़यामत का जुनूं तारी था
सर पे सरशरी-ओ-इशरत का जुनूं तारी था
माहपारों से मोहब्बत का जुनूं तारी था
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूं तारी था

एक बिस्तर-ए-मखमल-ओ-संजाब थी दुनिया मेरी
एक रंगीन-ओ-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी

क्या सुनोगी मेरी मजरूह जवानी की पुकार
मेरी फ़रियाद-ए-जिगरदोज़ मेरा नाला-ए-ज़ार
शिद्दत-ए-कर्ब में ड़ूबी हुई मेरी गुफ़्तार
मैं के खुद अपने मज़ाक़-ए-तरब आगीं का शिकार

वो गुदाज़-ए-दिल-ए-मरहूम कहां से लाऊँ
अब मै वो जज़्बा-ए-मासूम कहां से लाऊँ

अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो?

Thursday, July 1, 2010

अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है - angdaai pe angdaai leti hai...

अंगड़ाई पर अंगड़ाई लेती है रात जुदाई की,
तुम क्या समझो तुम क्या जानो बात मेरी तन्हाई की

कौन सियाही घोल रहा था वक़्त के बहते दरिया में,
मैंने आँख झुकी देखी है आज किसी हरजाई की

वस्ल की रात ना जाने क्यों इसरार था उनको जाने पर,
वक़्त से पहले डूब गए तारों ने बड़ी दानाई की

उड़ते उड़ते आस का पंछी दूर उफ़क़ में डूब गया,
रोते रोते बैठ गयी आवाज़ किसी सौदाई की.