हर एक बात पे कहते हो तुम कि "तू क्या है"?
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है?
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल,
जब आँख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है?
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन,
हमारी जेब को अब हाजत[1]-ए-रफू[2] क्या है
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो अब राख, जुस्तजू क्या है?
रही ना ताक़त-ए-गुफ़्तार[3], और अगर हो भी,
तो किस उम्मीद पे कहिये कि आरज़ू क्या है?
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