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Wednesday, October 14, 2009

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी... - hazaaro khwaahishe aisi...

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले.

निकलना खुल्द से आदम का सुनते हैं आये हैं लेकिन,
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले.

मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का,
उसी को देखकर जीते हैं, जिस काफिर पे दम निकले.

खुदा के वास्ते पर्दा ना काबे से उठा जालिम,
कहीं ऐसा ना हो, यां भी वही काफिर सनम निकले.

कहाँ मैखाने का दरवाज़ा "ग़ालिब" और कहाँ वाइज़,
पर इतना जानते हैं, कल वो आता था के हम निकले.

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