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Saturday, October 24, 2009

देने वाले मुझे मौजों की... - dene wale mujhe maujon ki...

देने वाले मुझे मौजों की रवानी[1] देदे,
फिर से एक बार मुझे मेरी जवानी देदे.

अब्र[2] हो, जाम हो, साकी हो मेरे पहलू में,
कोई तो शाम मुझे ऐसी सुहानी देदे.

नशा आ जाये मुझे तेरी जवानी की कसम,
तू अगर जाम[3] में भर के मुझे पानी देदे.

हर जवान दिल मेरे अफसानो को दोहराता रहे,
हश्र[4] तक ख़त्म ना हो, ऐसी कहानी देदे.

Friday, October 23, 2009

शोला हूँ भड़कने की गुजारिश नहीं करता - shola hun bhadakne ki guzarish nahin karta...

शोला हूँ भड़कने की गुजारिश नहीं करता,
सच मुहँ से निकल जाता है, कोशिश नहीं करता.

गिरती हुई दीवार का हमदर्द हूँ लेकिन,
चढ़ते हुए सूरज की परस्तिश[1] नहीं करता.

माथे के पसीने की महक आये ना जैसी,
वो खून मेरे जिस्म में गर्दिश[2] नहीं करता

हमदर्द-ए-एहबाब[3] से डरता हूँ 'मुज़फ्फर'
मैं ज़ख्म तो रखता हूँ, नुमाइश[4] नहीं करता.

Thursday, October 22, 2009

नींद से आँख खुली है अभी - neend se aankh khuli hai abhi...

नींद से आँख खुली है अभी, देखा क्या है,
देख लेना अभी कुछ देर में दुनिया क्या है.

बाँध रखा है किसी सोच ने घर से हमको,
वरना अपना दर-ओ-दीवार से रिश्ता क्या है.

रेत की ईंट की पत्थर की हूँ या मिट्टी की,
किसी दीवार के साए का भरोसा क्या है.

अपनी दानिश्त में समझे कोई दुनिया "शाहिद"
वरना हाथों में लकीरों के इलावा क्या है?

Wednesday, October 14, 2009

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी... - hazaaro khwaahishe aisi...

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले.

निकलना खुल्द से आदम का सुनते हैं आये हैं लेकिन,
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले.

मुहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का,
उसी को देखकर जीते हैं, जिस काफिर पे दम निकले.

खुदा के वास्ते पर्दा ना काबे से उठा जालिम,
कहीं ऐसा ना हो, यां भी वही काफिर सनम निकले.

कहाँ मैखाने का दरवाज़ा "ग़ालिब" और कहाँ वाइज़,
पर इतना जानते हैं, कल वो आता था के हम निकले.

कब से हूँ क्या बताऊँ... - kab se hun kya bataau...

क़ासिद के आते आते ख़त एक और लिख रखूँ,
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में.

कब से हूँ क्या बताऊँ जहान-ए-ख़राब में,
शब हाय हिज्र को भी रखूं गर हिसाब में.

मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम,
साक़ी ने कुछ मिला ना दिया हो शराब में.

ता फिर ना इंतज़ार में नींद आये उम्र भर,
आने का अहद कर गए आये जो ख्वाब में.

ग़ालिब छुटी शराब पर अब भी कभी कभी,
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में.

Tuesday, October 6, 2009

तेरे क़दमों पे सर होगा - tere kadmon pe sar hoga...

तेरे क़दमों पे सर होगा, कज़ा सर पे खड़ी होगी,
फिर उस सजदे का क्या कहना, अनोखी बंदगी होगी.

नसीम-ए-सुबह गुलशन में गुलों से खेलती होगी,
किसी की आखरी हिचकी किसी की दिल्लगी होगी.

दिखा दूंगा सर-ए-महफिल, बता दूंगा सर-ए-मेहशिर,
वो मेरे दिल में होंगे और दुनिया देखती होगी.

मज़ा आ जायेगा मेहशिर में फिर सुनने सुनाने का,
जुबां होगी वहां मेरी, कहानी आपकी होगी.

तुम्हें दानिस्ता महफिल में जो देखा हो तो मुजरिम,
नज़र आखिर नज़र है, बेइरादा उठ गयी होगी.